एक बार गोस्वामी तुलसीदासजी काशी में विद्वानों के बीच भगवत चर्चा कर रहे थे। तभी दो व्यक्ति – जो तुलसीदासजी के गाँव से थे , वहाँ आये। ऐसे तो वे दोनों गंगास्नान करने आये थे। लेकिन सत्संग सभा तथा भगवद वार्तालाप हो रहा था
तो वे भी वहाँ बैठ गए। दोनो ने ने उन्हें पहचान लिया। वे आपस में बात करने लगे।
एक ने कहा – “अरे ! ए तो अपना रामबोला। हमारे साथ-साथ खेलता था। कैसी सब बाते कर रहा है, और लोग भी कितनी तन्मयता से उसकी वाणी सुन रहे है ! क्या चक्कर है ये सब ।”
दुसरे ने कहा – “हाँ भाई, मुझे तो वह पक्का बहुरूपी ठग लगता है। देखो तो कैसा ढोंग कर रहा है ! पहले तो वह ऐसा नहीं था। हमारे साथ खेलता था तब तो कैसा था और अब वेश बदल कर कैसा लग रहा है ! मुझे तो लगता है कि वह ढोंग कर रहा है।”
जब तुलसीदासजी ने उन्हें देखा तो वे दोनोके पास गए, उनसे खबर पूछी और बाते की।
दोनों में से एक ने कहाँ कि “अरे ! तूने तो कैसा वेष धारण कर लिया है ? तू सब को अँधेरे में रख सकता है, लेकिन हम तो तुम्हे अच्छी तरह से जानते है। तू सबको प्रभावित करने की कोशिष कर रहा है। लेकिन हम तो प्रभावित होनेवाले नहीं। हम जानते है कि तू ढोंग कर रहा है।”
तुलसीदासजी को मनोमन दोनो के अज्ञान पे दया आई। उनके मुखसे एक दोहा निकल गया –
तुलसी वहाँ न जाइए, जन्मभूमि के ठाम |
गुण-अवगुण चिह्ने नहीं, लेत पुरानो नाम ||
अर्थात साधू को अपने जन्मभूमि के गाँव नहीं जाना चाहिए। क्योंकि वहाँ के लोगों उन में प्रगट हुए गुणों को न देखकर पुराना नाम लेते रहेंगे। उनके ज्ञान-वैराग्य-भक्ति से किसी को कोई लाभ नहीं हो सकेगा।
निकट के लोग कई बार सही पहचान नहीं कर पाते । ‘अतिपरिचय अवज्ञा भवेत’ यानि अति परिचय के कारण नज़दीक के लोग सही लाभ नही ले पाता , जबकि दूर रहनेवाले आदर सम्मान कर के विद्वानों का लाभ ले पाता है।
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