Wednesday, 22 October 2014

'एक वो भी दिवाली थी… एक ये भी दिवाली है'... Why??


कार्तिक मास की अमावस क्यों खास होती है यह बताने की आवश्यकता ही नहीं..रोशनी के त्यौहार दिवाली से कौन अनजान होगा ?
कुछ सालों पहले तक दिवाली की तैयारियों में जो उत्साह उमंग दिखाई दिया करता था , क्या वह आज भी कायम है?अगर नहीं तो इसके कई कारण हो सकते हैं.इन संभावित कारणों
को हम आप बहुत कुछ जानते भी हैं..दोहराने से क्या लाभ..?मुख्य कारण तो मंहगाई ही है लेकिन बढ़ते आधुनिकीकरण का प्रभाव रीती रिवाजों के साथ साथ त्योहारों  पर भी पड़ रहा है.बीते कल में और आज में बहुत परिवर्तन आ गया है.आने वाले कल में और कितना परिवर्तन आएगा या कल हम रिवर्स में भी जा सकते हैं?
याद है ….हर साल मिट्टी के १००-१५०  नए दिए लाए जाते ,पानी में उन्हें डुबा कर रखना फिर सुखाना ,रूई की बत्तियाँ बनाना,आस पड़ोस में देने के लिए दिवाली की मिठाई की थाल के लिए नए थाल पोश बनाना,रंगोली के नए डिजाईन तलाशना ,कंदीलें बनाना[अब कंदीलें गायब हैं] ,उन दिनों रेडीमेड कपड़ों का कम चलन था सो महीने दो महीने पहले ही नए कपडे ले कर दर्जी से सिलवाना.. आदि आदि…

हफ्ते भर पहले ही बच्चे हथोड़ा लिए बिंदी वाले पटाखे बजाते नज़र आते..रोकेट चलाने के लिए खाली बोतलें ढूंढ कर रखी  जातीं.पटाखों में भी बहुत बदलाव आया है.घर की पुताई साल में दीवाली पर ही होती थी तो स्कूल से १-२ दिन की छुट्टी इसी बहाने से लिए ली जाती..अब डिस्टेम्पर आदि तरह तरह के आधुनिक एडवांस रंगों ने हर साल की पुताई पर कंट्रोल किया है.मिठाईयाँ नमकीन की कहें तो घर में ही सभी मिष्ठान बनते थे ..लड्डू -मट्ठी तो महीना भर के लिए बन जाते थे और मम्मी को मिठाई पर  ताला भी लगाना पड़ता था [ताला लगाने की वजह मैं “मीठे की चोर”   हुआ करती थी.अब केलोरी फ्री /शुगर  फ्री मिठाई का फैशन है .सच कहूँ तो उन दिनों ‘डिज़ाईनर मिठाईयों/उपहारों ’ का चलन भी इतना नहीं था,घर की बनी मिठाई  ली दी  जाती थी.

सिर्फ दिवाली ही नहीं दिवाली के साथ शुरू हुई त्योहारों की श्रृंखला पास पड़ोस /सम्बन्धी/मित्रों के साथ मिलकर धूम धाम से मनाई जाती थी.
अब हम सिमट रहे हैं अपने अपने दायरों में और दिवाली एस एम् एस /ईग्रीटिंग/मिठाई /उपहारों का औपचारिक आदान प्रदान /औपचारिक दिवाली मिलन समारोह जैसा १-२ घंटे का कार्यक्रम कर अपने दायित्व की इति श्री कर लेते हैं.मैं ने जो कुछ लिखा ज़रुरी नहीं उस से सभी सहमत हों लेकिन लगता ऐसा ही है हम में से अधिकतर  अपने तीज त्यौहार  आज औपचारिकतावश मना रहे हैं.त्योहारों के आने का वो उत्साह /वो उमंग/ वो उल्लास जो १५-२० साल पहले हुआ करता था अब कहाँ देखने  को मिलता है  ?

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