भारत में गरीबी की समस्या: नई सोच की आवश्यकता “गरीबी बहुत-सी आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है इसलिए गरीबी की समस्या को हल करने के लिए स्वयं गरीबी की संकल्पना से परे जाना होगा…….यह जानना काफी नहीं कि कितने लोग गरीब है, बल्कि यह जानना महत्वपूर्ण है कि गरीब लोग कितने गरीब है.
भारत में गरीबी का जारी रहना एक बड़ी चुनौती है गरीबी का सम्बन्ध
केवल आय या कैलोरी से जोड़कर करना सही नहीं होगा, बल्कि हमें यह देखना चाहिए
कि लोगों कि बीमारियों से कहाँ तक रक्षा हो पाई है, उनके लिए रोटी, कपड़ा,
मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, व रोजगार की सुविधाओं का विस्तार करना होगा.
गरीबों को केवल सस्ती शिक्षा, सस्ता अनाज और सस्ती दवाईया, सस्ता आवास दे
देने मात्र से उनकी गरीबी दूर नहीं होगी. जिस प्रकार हम गरीबी और गरीबी
रेखा पर सोच-विचार करते है, ठीक उसी प्रकार अमीरी और अमीरी रेखा के
निर्धारण पर भी सोचना होगा. गरीबों के जीवनस्तर को जिन्दा रहने लायक स्तर
से ऊपर उठाना होगा. उन्हें केवल जीवनरेखा को पार करना ठीक वैसा ही होगा,
जैसे गहरे पानी में डूबे हुए व्यक्ति को किनारे पर लाकर पटक देना. उसे इस
स्थिति के पश्चात् ही जिन्दा रहने व अच्छा जीवन जीने की आवश्यकता होती है.
गरीबों को उनकी गरीबी से बाहर निकल कर उनको जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं और
सेवाएँ उपलब्ध करवाई जाएँ, ताकि उनकी औसत आयु बढ सके, उनकी शिक्षा व
स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा हो सके और उनके अन्दर बढ़ी गरीबी की मानसिकता से
छुटकारा मिल सके. इसके लिए सरकार व योजनाकारों को गरीब और गरीब के प्रति नई
सोच विकसित करनी होगी, नए मापदंड निर्धारित करने होंगे. अमीरी और गरीबी के
बीच की खाई को पाटना होगा, क्योकिं बेलगाम अमीरी से ही बेलगाम गरीबी का
जन्म होता है………
गरीब कौन ? गरीबी रेखा क्या है?
गरीब,गरीबी और गरीबी रेखा आय-व्यय, कैलौरी मात्र, कुपोषण, अर्द्ध-भुखमरी व भूख से मौतों जैसे मुद्दों पर सरकार, योजनाकारों व जनता के बीच कई दशकों से देश में बहस चल रही है. हाल ही में गरीबी रेखा पर हुई बहस में योजनाकारों द्द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रूपये तथा शहरी क्षेत्रों में ३२ रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय से कम प्राप्त करने वालों को गरीबी रेखा के नीचे या बी. पी. एल. माना गया जिसे सभी वर्गों ने एकमत से नकार दिया तथा इस सम्बन्ध में सुझाव देने हेतु सरकार दवारा नई समिति का गठन किया गया. गरीबी बहस का विषय नहीं है. सोचने समझने और महसूस करने तथा उसे हर संभव तरीके से मिटने का विषय है गरीबी रेखा के निर्धारण में रात-दिन कवायद चल रही है कभी दांडेकर समिति, कभी तेंदुलकर समिति तो कभी अर्जुन सेन गुप्ता समिति का गठन किया गया. किन्तु वाही ढाक के तीन पात. सभी समितियों के निष्कर्ष भिन्न-भिन्न व विरोधाभासी होने के कारण किसी ठोस निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सका. ताज्जुब तो तब होता है जब देश के जाने माने अर्थशास्त्री, योजनाकार, नौकरशाह और अनुभवी राजनेता भी गरीब और गरीबी के मानकों पर एक मत नहीं हो सके. कभी ग्रामीण और शहरी गरीब कभी कैलोरी, कभी आय कभी व्यय के जंजाल में देश के गरीब अपनी गरीबी में दम तोड़ते नजर आते है. जो कभी कुपोषण से, कभी भुखमरी से तो कभी बेरोजगारी से मौतों के शिकार हो रहे है तथा अपनी दो जून की रोटी के लिए साल दर साल विस्थापन व पलायन के लिए मजबूर होता है ऐसे में गरीबी को कैलोरी में मापना हास्यास्पद लगता है तथा सभी अनुमान बेमानी लगते है. जब पेटभर रुखी रोटी भी नसीब नहीं होती है तो कैलोरीयुक्त भोजन कहाँ से लायेंगे? देश में अक्सर यह माना जाता है की वे लोग गरीब हैं जो एक निश्चित न्यूनतम उपभोग का स्तर प्राप्त करने में असफल रहते है इस संदर्भ में समय-समय पर गठित विभिन्न समितियों द्द्वारा विचार विमर्श व अनुमान लगाये गए है इसके अतिरिक्त भारत में नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन द्दवारा दिए जाने वाले उपभोग व्यय के पंचवर्षीय आंकड़ो तथा 1979 में योजना आयोग द्दवारा गठित न्यूनतम आवश्यकता व प्रभावी उपभोग मांग अनुमान टास्क फ़ोर्स के प्रतिवेदन में दी गई गरीबी रेखा को मद्देनजर रखते हुए योजना आयोग ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में गरीबी की मात्रा का अनुमान लगाता है. केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (CSO) द्द्वारा कुल निजी उपभोग व्यय के अनुमानों तथा जनगणना के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार अनुमान लगाता है, मार्च 1997 में योजना आयोग ने गरीबी की रेखा के निर्धारण के लिए नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन (NSSO) के अनुमानों को त्यागकर लाकडे़वाला सूत्र को अपनाया था, इस सूत्र के अनुसार शहरी क्षेत्र में औधोगिक क्षमिकों के उपभोक्ता मुल्य सूचकांक और ग्रामीण क्षेत्रो में औधोगिक क्षमिकों के उपभोक्ता मुल्य सूचकांक को गरीबी आकलन हेतु आधार बनाया गया है. इससे अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग गरीबी रेखाएं होंगी, हमारे देशों में गरीबी रेखा का सम्बन्ध कैलोरी के उपभोग की मात्रा से जोड़ा गया है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी से कम उपभोग करने वाले व्यक्तियों को गरीब माना गया है. गरीबी का इस प्रकार का विचार जिसमे गरीबी को न्यूनतम उपयोग या न्यूनतम आय से जोड़ा जाता है तो यह गरीबी की निरपेक्ष माप या स्थिति बताता है दूसरी और एक आय-वर्ग की तुलना दुसरे आय-वर्ग से की जाए या एक राज्य की तुलना दूसरे राज्य से की जाए तो इसमें गरीबी की सापेक्ष माप या विचार को बल मिलता है, किन्तु देश में गरीबी की रेखा के लिए निरपेक्ष माप को ही अपनाया गया है इस माप में कोई कमियां है जैसे कैलोरी आधारित गरीबी की माप असत्य अपर्याप्त एवं अनुपयुक्त अवधारणा है NSSO तथा CSO द्दवारा उपभोग व्यय के आंकड़ों में अंतर होने से उनका समायोजन कठिन होता है.
गरीबी से तात्पर्य मुख्य रूप से रोटी, कपडा, और मकान, जैसी आवश्यकता पूर्ति के अभाव से होता है. अतः गरीबी की रेखा निर्धारित करते समय रोटी, कपडा, और मकान के अलावा शिक्षा,स्वास्थ्य, पेयजल व रोजगार जैसी मुलभूत आवश्यकताओं को भी गरीबी की माप करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए जिनसे आज गरीबी की रेखाओं के ऊपर रहने वाले भी वंचित है गरीबी रेखा के सन्दर्भ में विवेचन करते हुए यह बताना युक्ति संगत होगा की हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने अपने कार्यकाल में ‘अमीरी की रेखा’ निर्धारित करने का विचार देश के समक्ष रखा था. किन्तु इस पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया गया. जबकि आज गरीबी रेखा से भी ज्यादा जरुरी अमीरी रेखा को निर्धारित करना है, क्योंकि वास्तव में देखा जाए तो बेलगाम अमीरी से ही बेलगाम गरीबी पनपती है एक अमीर होगा तो दूसरा उसके द्द्वारा शोषित होने के कारण अवश्य गरीब होगा. गरीबी की निरपेक्ष माप करते हुए सर्वप्रथम 1960-61 में उन लोगों को निर्धन तथा गरीबी की श्रैणी में रखा गया जो न्यूनतम कैलोरी प्राप्त करने हेतु आवश्यक आय जुटाने में असमर्थ थे. 1960-61 में 20 रूपये से कम मासिक आय से निर्वाह क्षमता वाले लोंगो को गरीबी की रेखा के नीचे रखा गया. 1968-69 में यह राशी 40 रूपये, 1973-74 में 49.9 रूपये ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 56.6 रूपये शहरी क्षत्रों में, 1976-77 में प्रचलित कीमतों पर ग्रामीण क्षत्रों में 61.5 तथा शहरी क्षेत्रों में 71.3, …………. तथा 1991-92 में 181.5 तथा शहरी क्षेत्रों में 209.5 रूपये निर्धारित की गई. योजना आयोग ने हाल ही में उच्चतम न्यायलय को बताये हुए कहा है की देश में 40 करोड़ 75 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे है और शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए गरीबी रेखा क्रमशः प्रतिमाह प्रतिव्यक्ति 965 रूपये तथा प्रतिदिन लगभग 32 रूपये ग्रामीण क्षोत्रों में 781 रूपये प्रतिमाह प्रतिव्यक्ति तथा प्रतिदिन लगभग 26 प्रतिव्यक्ति तय की गई है. गरीबी रेखा के सापेक्ष विचार में छोटी के 10 प्रतिशत या 5 प्रतिशत व्यक्तियों के व्यय की तुलना निम्नतम स्तर के 10 प्रतिशत या 5 प्रतिशत व्यक्तियों के व्यय से की जाती है. इससे आय की असमानता का अनुमान लगाया जा सकता है. गरीबी रेखा के निरपेक्ष माप में कई कमियां है. एक बार फिर इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता है कि इस रेखा के नीचे जाने वाले लोगों के अलग अलग वर्गों की वास्तविक दशा क्या है. क्योकि गरीबी रेखा के नीचे ग्रामीण क्षेत्र में 26 रूपये प्रतिदिन व 5 रूपये प्रतिदिन पाने वाले गरीब व्यक्तियों की गरीबी की दशा भिन्न भिन्न होती है. इसलिए प्रो. अमत्रयसेन ने कहा है की गरीब कोई एक आर्थिक वर्ग नहीं है, गरीबी बहुत सी आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है इसलिए गरीबी की समस्या को हल करने के लिए स्वयं गरीबी की संकल्पना से परे जाना होगा…..
राष्ट्रीय सांख्यिकीय संगठन की रिपोर्ट 2009 -10 के अनुसार देश में सिख आबादी में ग्रामीण क्षेत्रों में 11 .9 प्रतिशत गरीब है. ईसाईयों में शहरी गरीबी का अनुपात 12.9 प्रतिशत है मुसलमानों में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात राज्यों में सर्वाधिक असम में 53.6 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 34.4 प्रतिशत और गुजरात में 31.4 प्रतिशत बिहार में 56.5 प्रतिशत तथा पश्चिम बंगाल में 34 .9 प्रतिशत है.
ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति में गरीबी का अनुपात 47.4 प्रतिशत है तथा अनुसूचित जाती में 42.3 प्रतिशत, अन्य पिछड़ा वर्ग में 31.9 प्रतिशत तथा सभी जातियों के लिए 33.8 प्रतिशत है. शहरी क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति में 30.4 प्रतिशत व अनुसूचित जनजाति में 24 .3 प्रतिशत है.
संपन्न राज्य हरियाणा में 55.9 प्रतिशत खेतिहर मजदूर गरीब हैं. जबकि पंजाब में यह 35.6 प्रतिशत है. शहरी क्षेत्रों में अनुबंध पर कम करने वाले आस्थाई मजदूर में गरीबी अनुपात सबसे अधिक बिहार में 86 प्रतिशत, असम में 89 प्रतिशत, उदिशा ओडिसा में 58.8 प्रतिशत, पंजाब में 56.3 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में 67.6 प्रतिशत तथा पश्चिम बंगाल में 53.7 प्रतिशत है….
हमारे देश में गरीबी के कई कारण रहे है. देश में ग्रामीण गरीबी का मूल कारण कृषि में अर्द्ध सामंती उत्पादन संबंधों का होना है. स्वंतत्रता के बाद भूमि सुधारों के लिए जो कदम उठाए गए वे अपयार्प्त हैं और भूमि पर बड़े किसानों का अधिकार होने से भूमिहीनों की संख्या बढती जा रही है लगभग सभी खेतिहर मजदूरों के परिवार, काफी संख्या में छोटे व सीमांत किसान तथा भूमिहीन गैर-कृषि क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिक परिवार गरीब है. जनसँख्या लगातार बढती जा रही है, किन्तु भूमि उतनी ही रहती है. जिससे श्रम उत्पादकता और वास्तविक प्रतिव्यक्ति आय कम होती जाती है कृषि में तकनिकी परिवर्तनों व खाधनों के समर्थन मूल्यों में व्रध्धियो का लाभ बड़े किसानों को ही हुआ है. इससे आय की असमानता भी बड़ी है उत्पादन लागत में कमी से खाधनों की कीमतें घटती है जिससे छोटे किसानों को हानी होती है पिछले 20-25 वर्षो में देश में हुए भ्रष्टाचार और करोडो रुपये के घोटालों ने गरीबों की गरीबी को और अधिक बढ़ा दिया है . देश में बढते पूंजीवाद के कारण नव उदारवादी नीतियों तथा खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की नीतियाँ गरीबों के लिए अहितकर सिद्ध हुई है. नेताओ व अधिकारीयों के बढ़ाते वेतन और सुविधाएँ तथा उनके द्दवारा एकत्रित अरबों की संपत्ति से अमीरी और गरीबी की खाई दिनों दिन बढती जा रही है. सरकार की आर्थिक नीतियाँ इसके लिए जिम्मेदार है आज देश में 20 प्रतिशत लोगों के पास देश कि 80 प्रतिशत सम्पत्ति केन्द्रित है जबकि देश की 80 प्रतिशत जनता के पास मात्र 20 प्रतिशत है भारत में अति उच्च सम्पत्तिधारी कुबेरों की संख्या 800 है जिनकी कुल सम्पत्ति 945 अरब डालर है इनमें धन कुबेर ऐसे है जिनकी प्रत्येक की सम्पत्ति 50 अरब से अधिक है. लोक सभा में करीब 350 करोड़पति सांसद है. ये लोग अपने हितों और स्वार्थो को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनाते बिगाड़ते रहते है इसीलिए देश में आर्थिक विषमता गहराती जा रही है, जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, काले धन का लाभ गरीबों को नहीं मिल पा रहा है गरीबों की कीमत पर बढती अमीरी गरीबी-निवारण के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बन गई है. सरकार द्द्वारा गरीबी निवारण हेतु अनेक कार्यक्रम चलाए गए हैं तथा इस पर अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं किन्तु इनका पूरा लाभ गरीबों तक नहीं पहुंच पाता है गरीबी निवारण हेतु देश में ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (2005), राष्ट्रिय सामाजिक सहायता योजना (1995), राष्ट्रिय वृध्दा पेंशन योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना, राष्ट्रीय प्रसव लाभ योजना, शिक्षा सहयोग योजना (2001-02), सामूहिक जीवन बिमा योजना (1995-96), जयप्रकाश नारायण रोजगार गारंटी योजना (2002 -03), बालिका संरक्षण योजना, पुनसर्र्चित सार्वजानिक वितरण प्रणाली (1996), विकलांग संगम योजना (1996), जन श्री बीमा योजना (2000), विजन 2020 फाँर इण्डिया, लक्षित सार्वजानिक वितरण प्रणाली (1997), प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना, सर्वप्रिय योजना, अन्त्योदय अन्न योजना, राजीव गाँधी श्रमिक कल्याण योजना (2005), वाल्मीकि अम्बेडकर आवास योजन 2001, राजीव गाँधी श्रमिक कल्याण योजना, जननी सुरक्षा योजना 2005, भारत निर्माण कार्यक्रम 2005, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना 2005, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना 2009, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय विकलांगता पेंशन योजना 2009, 20 सूत्रीय कार्यक्रम 2007, जवाहर ग्राम सम्रध्धि योजना 1999, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (2006-07), सरकार के कितने योजनाओ को बताऊँ इनके जैसे अनेक योजनायें कार्यरत है, बस इनके लाभों को गरीबों तक पहुँचने की आवश्यकता है. इसके लिए सरकार को कठोर कदम उठाने होंगे….
देश में बढाती गरीबी को देखते हुए इसके निराकरण हेतु हमारी सरकार को ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पशुपालन, वानिकी व सहायक उधोगों की स्थापना करके अधिक विविधीकृत किया जाए तथा लघु उधोगों को बढावा दिया जाए…
स्वरोजगार व मजदूरी रोजगार कार्यक्रमों में समन्वय होना चाहिए…
ऐसे परिवार जिनके पास न कोई कौसल है न कोई परिसम्पत्ति है और न कोई काम करने वाला वयस्क है, ऐसे परिवारों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाएं बनाई जाएँ…
गरीबों के लिए पर्याप्त भूमि, जल, शिक्षा, स्वास्थ्य, इंधन व परिवहन सुविधाओं का विस्तार किया जाए…
गाँवो में बड़े किसानों व सामंतों द्दवारा गरीबों के शोषण को रोका जाए…
गरीबी निवारण कार्यक्रमों की प्रतिवर्ष समीक्षा व मूल्याँकन किया जाए, साधनों के निजी स्वामित्व, आय व साधनों के असमान वितरण व प्रयोग पर नियंत्रण किया जाए…
गरीबी निवारण कार्यक्रमों का अधिकतम लाभ अमीरों के बजाय गरीबों को पहुँचाने का प्रयास किया जाए…
गरीबों को दो वर्गों में बंटा जाए, एक वर्ग में वे गरीब हों जिनके पास कोई कौशल है और वे स्वरोजगार कर सकते हैं, दूसरे वर्ग में वे गरीब हों जिनके पास कोई कौशल या प्रशिक्षण नहीं है और वे जो केवल मजदूरी पर ही आश्रित है. प्रत्येक वर्ग की उन्नति के लिए अलग निति बनाई जाए…
सरकार को गरीबों के कल्याण के लिए आर्थिक नीतियाँ बनाई जाएँ तथा अमीरों और पूंजीवाद को बढावा देने वाली नीतियों में बदलाव लाया जाए, ताकि गरीबी और अमीरी के बीच की खाई को पाटा जा सके और हमें गरीबी के कलंक से छुटकारा मिल सके और गाँधी जी के भारत नवनिर्माण का सपना साकार कर सकें ……
—————-इसी के साथ जय हिन्द जय भारत—————-
गरीब कौन ? गरीबी रेखा क्या है?
गरीब,गरीबी और गरीबी रेखा आय-व्यय, कैलौरी मात्र, कुपोषण, अर्द्ध-भुखमरी व भूख से मौतों जैसे मुद्दों पर सरकार, योजनाकारों व जनता के बीच कई दशकों से देश में बहस चल रही है. हाल ही में गरीबी रेखा पर हुई बहस में योजनाकारों द्द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रूपये तथा शहरी क्षेत्रों में ३२ रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय से कम प्राप्त करने वालों को गरीबी रेखा के नीचे या बी. पी. एल. माना गया जिसे सभी वर्गों ने एकमत से नकार दिया तथा इस सम्बन्ध में सुझाव देने हेतु सरकार दवारा नई समिति का गठन किया गया. गरीबी बहस का विषय नहीं है. सोचने समझने और महसूस करने तथा उसे हर संभव तरीके से मिटने का विषय है गरीबी रेखा के निर्धारण में रात-दिन कवायद चल रही है कभी दांडेकर समिति, कभी तेंदुलकर समिति तो कभी अर्जुन सेन गुप्ता समिति का गठन किया गया. किन्तु वाही ढाक के तीन पात. सभी समितियों के निष्कर्ष भिन्न-भिन्न व विरोधाभासी होने के कारण किसी ठोस निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सका. ताज्जुब तो तब होता है जब देश के जाने माने अर्थशास्त्री, योजनाकार, नौकरशाह और अनुभवी राजनेता भी गरीब और गरीबी के मानकों पर एक मत नहीं हो सके. कभी ग्रामीण और शहरी गरीब कभी कैलोरी, कभी आय कभी व्यय के जंजाल में देश के गरीब अपनी गरीबी में दम तोड़ते नजर आते है. जो कभी कुपोषण से, कभी भुखमरी से तो कभी बेरोजगारी से मौतों के शिकार हो रहे है तथा अपनी दो जून की रोटी के लिए साल दर साल विस्थापन व पलायन के लिए मजबूर होता है ऐसे में गरीबी को कैलोरी में मापना हास्यास्पद लगता है तथा सभी अनुमान बेमानी लगते है. जब पेटभर रुखी रोटी भी नसीब नहीं होती है तो कैलोरीयुक्त भोजन कहाँ से लायेंगे? देश में अक्सर यह माना जाता है की वे लोग गरीब हैं जो एक निश्चित न्यूनतम उपभोग का स्तर प्राप्त करने में असफल रहते है इस संदर्भ में समय-समय पर गठित विभिन्न समितियों द्द्वारा विचार विमर्श व अनुमान लगाये गए है इसके अतिरिक्त भारत में नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन द्दवारा दिए जाने वाले उपभोग व्यय के पंचवर्षीय आंकड़ो तथा 1979 में योजना आयोग द्दवारा गठित न्यूनतम आवश्यकता व प्रभावी उपभोग मांग अनुमान टास्क फ़ोर्स के प्रतिवेदन में दी गई गरीबी रेखा को मद्देनजर रखते हुए योजना आयोग ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में गरीबी की मात्रा का अनुमान लगाता है. केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (CSO) द्द्वारा कुल निजी उपभोग व्यय के अनुमानों तथा जनगणना के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार अनुमान लगाता है, मार्च 1997 में योजना आयोग ने गरीबी की रेखा के निर्धारण के लिए नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन (NSSO) के अनुमानों को त्यागकर लाकडे़वाला सूत्र को अपनाया था, इस सूत्र के अनुसार शहरी क्षेत्र में औधोगिक क्षमिकों के उपभोक्ता मुल्य सूचकांक और ग्रामीण क्षेत्रो में औधोगिक क्षमिकों के उपभोक्ता मुल्य सूचकांक को गरीबी आकलन हेतु आधार बनाया गया है. इससे अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग गरीबी रेखाएं होंगी, हमारे देशों में गरीबी रेखा का सम्बन्ध कैलोरी के उपभोग की मात्रा से जोड़ा गया है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी से कम उपभोग करने वाले व्यक्तियों को गरीब माना गया है. गरीबी का इस प्रकार का विचार जिसमे गरीबी को न्यूनतम उपयोग या न्यूनतम आय से जोड़ा जाता है तो यह गरीबी की निरपेक्ष माप या स्थिति बताता है दूसरी और एक आय-वर्ग की तुलना दुसरे आय-वर्ग से की जाए या एक राज्य की तुलना दूसरे राज्य से की जाए तो इसमें गरीबी की सापेक्ष माप या विचार को बल मिलता है, किन्तु देश में गरीबी की रेखा के लिए निरपेक्ष माप को ही अपनाया गया है इस माप में कोई कमियां है जैसे कैलोरी आधारित गरीबी की माप असत्य अपर्याप्त एवं अनुपयुक्त अवधारणा है NSSO तथा CSO द्दवारा उपभोग व्यय के आंकड़ों में अंतर होने से उनका समायोजन कठिन होता है.
गरीबी से तात्पर्य मुख्य रूप से रोटी, कपडा, और मकान, जैसी आवश्यकता पूर्ति के अभाव से होता है. अतः गरीबी की रेखा निर्धारित करते समय रोटी, कपडा, और मकान के अलावा शिक्षा,स्वास्थ्य, पेयजल व रोजगार जैसी मुलभूत आवश्यकताओं को भी गरीबी की माप करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए जिनसे आज गरीबी की रेखाओं के ऊपर रहने वाले भी वंचित है गरीबी रेखा के सन्दर्भ में विवेचन करते हुए यह बताना युक्ति संगत होगा की हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने अपने कार्यकाल में ‘अमीरी की रेखा’ निर्धारित करने का विचार देश के समक्ष रखा था. किन्तु इस पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया गया. जबकि आज गरीबी रेखा से भी ज्यादा जरुरी अमीरी रेखा को निर्धारित करना है, क्योंकि वास्तव में देखा जाए तो बेलगाम अमीरी से ही बेलगाम गरीबी पनपती है एक अमीर होगा तो दूसरा उसके द्द्वारा शोषित होने के कारण अवश्य गरीब होगा. गरीबी की निरपेक्ष माप करते हुए सर्वप्रथम 1960-61 में उन लोगों को निर्धन तथा गरीबी की श्रैणी में रखा गया जो न्यूनतम कैलोरी प्राप्त करने हेतु आवश्यक आय जुटाने में असमर्थ थे. 1960-61 में 20 रूपये से कम मासिक आय से निर्वाह क्षमता वाले लोंगो को गरीबी की रेखा के नीचे रखा गया. 1968-69 में यह राशी 40 रूपये, 1973-74 में 49.9 रूपये ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 56.6 रूपये शहरी क्षत्रों में, 1976-77 में प्रचलित कीमतों पर ग्रामीण क्षत्रों में 61.5 तथा शहरी क्षेत्रों में 71.3, …………. तथा 1991-92 में 181.5 तथा शहरी क्षेत्रों में 209.5 रूपये निर्धारित की गई. योजना आयोग ने हाल ही में उच्चतम न्यायलय को बताये हुए कहा है की देश में 40 करोड़ 75 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे है और शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए गरीबी रेखा क्रमशः प्रतिमाह प्रतिव्यक्ति 965 रूपये तथा प्रतिदिन लगभग 32 रूपये ग्रामीण क्षोत्रों में 781 रूपये प्रतिमाह प्रतिव्यक्ति तथा प्रतिदिन लगभग 26 प्रतिव्यक्ति तय की गई है. गरीबी रेखा के सापेक्ष विचार में छोटी के 10 प्रतिशत या 5 प्रतिशत व्यक्तियों के व्यय की तुलना निम्नतम स्तर के 10 प्रतिशत या 5 प्रतिशत व्यक्तियों के व्यय से की जाती है. इससे आय की असमानता का अनुमान लगाया जा सकता है. गरीबी रेखा के निरपेक्ष माप में कई कमियां है. एक बार फिर इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता है कि इस रेखा के नीचे जाने वाले लोगों के अलग अलग वर्गों की वास्तविक दशा क्या है. क्योकि गरीबी रेखा के नीचे ग्रामीण क्षेत्र में 26 रूपये प्रतिदिन व 5 रूपये प्रतिदिन पाने वाले गरीब व्यक्तियों की गरीबी की दशा भिन्न भिन्न होती है. इसलिए प्रो. अमत्रयसेन ने कहा है की गरीब कोई एक आर्थिक वर्ग नहीं है, गरीबी बहुत सी आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है इसलिए गरीबी की समस्या को हल करने के लिए स्वयं गरीबी की संकल्पना से परे जाना होगा…..
राष्ट्रीय सांख्यिकीय संगठन की रिपोर्ट 2009 -10 के अनुसार देश में सिख आबादी में ग्रामीण क्षेत्रों में 11 .9 प्रतिशत गरीब है. ईसाईयों में शहरी गरीबी का अनुपात 12.9 प्रतिशत है मुसलमानों में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात राज्यों में सर्वाधिक असम में 53.6 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 34.4 प्रतिशत और गुजरात में 31.4 प्रतिशत बिहार में 56.5 प्रतिशत तथा पश्चिम बंगाल में 34 .9 प्रतिशत है.
ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति में गरीबी का अनुपात 47.4 प्रतिशत है तथा अनुसूचित जाती में 42.3 प्रतिशत, अन्य पिछड़ा वर्ग में 31.9 प्रतिशत तथा सभी जातियों के लिए 33.8 प्रतिशत है. शहरी क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति में 30.4 प्रतिशत व अनुसूचित जनजाति में 24 .3 प्रतिशत है.
संपन्न राज्य हरियाणा में 55.9 प्रतिशत खेतिहर मजदूर गरीब हैं. जबकि पंजाब में यह 35.6 प्रतिशत है. शहरी क्षेत्रों में अनुबंध पर कम करने वाले आस्थाई मजदूर में गरीबी अनुपात सबसे अधिक बिहार में 86 प्रतिशत, असम में 89 प्रतिशत, उदिशा ओडिसा में 58.8 प्रतिशत, पंजाब में 56.3 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में 67.6 प्रतिशत तथा पश्चिम बंगाल में 53.7 प्रतिशत है….
हमारे देश में गरीबी के कई कारण रहे है. देश में ग्रामीण गरीबी का मूल कारण कृषि में अर्द्ध सामंती उत्पादन संबंधों का होना है. स्वंतत्रता के बाद भूमि सुधारों के लिए जो कदम उठाए गए वे अपयार्प्त हैं और भूमि पर बड़े किसानों का अधिकार होने से भूमिहीनों की संख्या बढती जा रही है लगभग सभी खेतिहर मजदूरों के परिवार, काफी संख्या में छोटे व सीमांत किसान तथा भूमिहीन गैर-कृषि क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिक परिवार गरीब है. जनसँख्या लगातार बढती जा रही है, किन्तु भूमि उतनी ही रहती है. जिससे श्रम उत्पादकता और वास्तविक प्रतिव्यक्ति आय कम होती जाती है कृषि में तकनिकी परिवर्तनों व खाधनों के समर्थन मूल्यों में व्रध्धियो का लाभ बड़े किसानों को ही हुआ है. इससे आय की असमानता भी बड़ी है उत्पादन लागत में कमी से खाधनों की कीमतें घटती है जिससे छोटे किसानों को हानी होती है पिछले 20-25 वर्षो में देश में हुए भ्रष्टाचार और करोडो रुपये के घोटालों ने गरीबों की गरीबी को और अधिक बढ़ा दिया है . देश में बढते पूंजीवाद के कारण नव उदारवादी नीतियों तथा खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की नीतियाँ गरीबों के लिए अहितकर सिद्ध हुई है. नेताओ व अधिकारीयों के बढ़ाते वेतन और सुविधाएँ तथा उनके द्दवारा एकत्रित अरबों की संपत्ति से अमीरी और गरीबी की खाई दिनों दिन बढती जा रही है. सरकार की आर्थिक नीतियाँ इसके लिए जिम्मेदार है आज देश में 20 प्रतिशत लोगों के पास देश कि 80 प्रतिशत सम्पत्ति केन्द्रित है जबकि देश की 80 प्रतिशत जनता के पास मात्र 20 प्रतिशत है भारत में अति उच्च सम्पत्तिधारी कुबेरों की संख्या 800 है जिनकी कुल सम्पत्ति 945 अरब डालर है इनमें धन कुबेर ऐसे है जिनकी प्रत्येक की सम्पत्ति 50 अरब से अधिक है. लोक सभा में करीब 350 करोड़पति सांसद है. ये लोग अपने हितों और स्वार्थो को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनाते बिगाड़ते रहते है इसीलिए देश में आर्थिक विषमता गहराती जा रही है, जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, काले धन का लाभ गरीबों को नहीं मिल पा रहा है गरीबों की कीमत पर बढती अमीरी गरीबी-निवारण के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बन गई है. सरकार द्द्वारा गरीबी निवारण हेतु अनेक कार्यक्रम चलाए गए हैं तथा इस पर अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं किन्तु इनका पूरा लाभ गरीबों तक नहीं पहुंच पाता है गरीबी निवारण हेतु देश में ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (2005), राष्ट्रिय सामाजिक सहायता योजना (1995), राष्ट्रिय वृध्दा पेंशन योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना, राष्ट्रीय प्रसव लाभ योजना, शिक्षा सहयोग योजना (2001-02), सामूहिक जीवन बिमा योजना (1995-96), जयप्रकाश नारायण रोजगार गारंटी योजना (2002 -03), बालिका संरक्षण योजना, पुनसर्र्चित सार्वजानिक वितरण प्रणाली (1996), विकलांग संगम योजना (1996), जन श्री बीमा योजना (2000), विजन 2020 फाँर इण्डिया, लक्षित सार्वजानिक वितरण प्रणाली (1997), प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना, सर्वप्रिय योजना, अन्त्योदय अन्न योजना, राजीव गाँधी श्रमिक कल्याण योजना (2005), वाल्मीकि अम्बेडकर आवास योजन 2001, राजीव गाँधी श्रमिक कल्याण योजना, जननी सुरक्षा योजना 2005, भारत निर्माण कार्यक्रम 2005, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना 2005, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना 2009, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय विकलांगता पेंशन योजना 2009, 20 सूत्रीय कार्यक्रम 2007, जवाहर ग्राम सम्रध्धि योजना 1999, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (2006-07), सरकार के कितने योजनाओ को बताऊँ इनके जैसे अनेक योजनायें कार्यरत है, बस इनके लाभों को गरीबों तक पहुँचने की आवश्यकता है. इसके लिए सरकार को कठोर कदम उठाने होंगे….
देश में बढाती गरीबी को देखते हुए इसके निराकरण हेतु हमारी सरकार को ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पशुपालन, वानिकी व सहायक उधोगों की स्थापना करके अधिक विविधीकृत किया जाए तथा लघु उधोगों को बढावा दिया जाए…
स्वरोजगार व मजदूरी रोजगार कार्यक्रमों में समन्वय होना चाहिए…
ऐसे परिवार जिनके पास न कोई कौसल है न कोई परिसम्पत्ति है और न कोई काम करने वाला वयस्क है, ऐसे परिवारों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाएं बनाई जाएँ…
गरीबों के लिए पर्याप्त भूमि, जल, शिक्षा, स्वास्थ्य, इंधन व परिवहन सुविधाओं का विस्तार किया जाए…
गाँवो में बड़े किसानों व सामंतों द्दवारा गरीबों के शोषण को रोका जाए…
गरीबी निवारण कार्यक्रमों की प्रतिवर्ष समीक्षा व मूल्याँकन किया जाए, साधनों के निजी स्वामित्व, आय व साधनों के असमान वितरण व प्रयोग पर नियंत्रण किया जाए…
गरीबी निवारण कार्यक्रमों का अधिकतम लाभ अमीरों के बजाय गरीबों को पहुँचाने का प्रयास किया जाए…
गरीबों को दो वर्गों में बंटा जाए, एक वर्ग में वे गरीब हों जिनके पास कोई कौशल है और वे स्वरोजगार कर सकते हैं, दूसरे वर्ग में वे गरीब हों जिनके पास कोई कौशल या प्रशिक्षण नहीं है और वे जो केवल मजदूरी पर ही आश्रित है. प्रत्येक वर्ग की उन्नति के लिए अलग निति बनाई जाए…
सरकार को गरीबों के कल्याण के लिए आर्थिक नीतियाँ बनाई जाएँ तथा अमीरों और पूंजीवाद को बढावा देने वाली नीतियों में बदलाव लाया जाए, ताकि गरीबी और अमीरी के बीच की खाई को पाटा जा सके और हमें गरीबी के कलंक से छुटकारा मिल सके और गाँधी जी के भारत नवनिर्माण का सपना साकार कर सकें ……
—————-इसी के साथ जय हिन्द जय भारत—————-
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